स्वामी श्रदानन्द

23 दिसम्बर 1926 के दिन एक धर्म भृष्ट की चार गोलियों की धांय धांय ने भारत के एक महानतम सपूत की जीवन लीला समाप्त कर दी थी।जिनकी शव यात्रा में 25 दिसम्बर 1926 को दिल्ली की ¼ आबादी ने भाग लिया था और दिल्ली सुखी घास की भांति जलने को तैयार थी।।परन्तु न तो जो बलिदान हुया था उसके परिवार वाले और न ही आर्य समाज के नेता यह मानते थे कि बदले की भावना सी गई। कोई भी हिंसक कार्यवाही उस बलिदानी की शिक्षाओं, महत्व,सिद्धांत अथवा जीवन के मूल स्वरूप से मेल खाती थी,अपितु वो तो हत्यारे के लिए सरकार से क्षमा की अपील करने तक को तैयार थे।

कौन थे वो महापुरष ??

आये भारत के उस महान सपूत को उनके बलिदान दिवस पर याद करके श्रद्धा के पुष्प भेंट करें।इस देश का यह दुर्भाग्य है कि जो अनेको ही वीर और त्यागी पुरुष जिन्होंने अपना सर्वस्य यहां तक कि अपना जीवन भी देश को अर्पित कर दिया आजाद भारत के इतिहास में हाशियों में भी नहीं रहे।

         ऐसे ही एक महानायक थे स्वामी श्रदानन्द ।स्वामी श्रद्धानंद जिन्होंने समाज में एक नई चेतना जगाई और समाज सुधार के नये नये उदाहरण प्रस्तुत किये।वो “पर उपदेश कुशल बहुतेरे” वर्ग के नही थे।जो कहते थे पहले स्वयं उस अपने जीवन में उतारते थे।उन्होंने नारी शिक्षा, पर्दा प्रथा, अनमेल विवाह और विधवा विवाह इत्यादि का आरम्भ अपने घर से ही किया था

1856 में आपका जन्म तलवल गांव, तहसील फिलोर में हुया था, बनारस,इलाहाबाद और लाहौर में शिक्षा प्राप्त की।सन्यास लेने से पूर्व उनका नाम मुंशी राम था। वो मोतीलाल नेहरू के सहपाठी थे।मुंशीराम का जीवन एक अनोखी कथा है।वो एक बिगड़े हुये नोजवान थे और बनारस की एक घटना ने उन्हें नास्तिक बना दिया था।मुंशी राम के पिता बनारस के कोतवाल थे।वो प्रतिदिन विश्वनाथ मंदिर में दर्शन करने जाया करते थे।एक दिन उन्हें मन्दिर के प्रवेश द्वार पर रोक दिया गया क्योंकि रेवाड़ी की महारानी भीतर पूजा कर रही थी।उनके बाहर निकलने के पश्चात ही कोई दर्शन कर सकता था।इस घटना ने उनके जीवन का रुख बदल दिया।उन्होंने प्रण लिया कि मैं ऐसे भगवान को नही मानता जिसके दरबार में छोटे-बड़े और अमीर -गरीब का भेदभाव होता हो और मुंशी राम नास्तिक बन गए।उनके भीतर हर वो दुर्गण मौजूद था, जो किसी बिगड़े रईसजादे में हो सकते थे।बरेली में उनका मेल स्वामी दयानंद सरस्वती जी महाराज से हुया और उनके प्रभाव में वो पुनह ईश्वरवादी बन गये।

मुंशी राम जी जालन्धर वकालत करने के लिए आये और यही से उनके जीवन की एक नई शुरुवात की।यही पर ही उनके राजनीतिक और धार्मिक जीवन की बुनियाद पड़ी।

लाहौर में शिक्षा ग्रहण करते हुए वो आर्य समाज के सम्पर्क में आये और जालन्धर आर्य समाज में रहते हुए अनेक समाज सुधार के काम किये।उस समय के अन्य नेता जिन समस्याओं की मात्र कोरी निंदा करते थे, मुंशी राम जी ने उन समस्याओं से लड़ कर एवम उनसे जीत  कर दिखाया था।नही तो डॉक्टर भीमराव अंबेडकर अपने लेखों में यह नही लिखते कि”इस समय सारे भारत में दलितों का सबसे बड़ा मसीहा स्वामी श्रदानन्द ही हैं।”

यह स्वामी श्रदानन्द ही थे जिन्होंने पहली बार नीच कहे जाने वाले और कमजोर वर्गों को “दलित” कह कर सम्भोधित किया जिसके साथ उनके सामाजिक रूप से पतारित और पीड़ित होने का आभास होता था न कि जन्मजात गिरे होने का।

यह वही श्रदानन्द थे जिन्होंने मद्रास(चेन्नई)के गोखले हाल में अपने ऐतिहासिक भाषण में सिंह गर्जना करते हुए वहां के ब्राह्मण वर्ग को चेतावनी देते हुए कहा कि यदि आपने अपने छुआ-छात के सिद्धांत नही बदले तो मैं एक ऐसा आंदोलन चलाऊंगा जिसके द्वारा वो (अछूत) जबरदस्ती ब्राह्मणी को छू कर अपने वर्ग का बना लेंगें।

स्वामी श्रदानन्द जी ने दक्षिण में “वायकॉम”नामके स्थान पर दलितों को समान अधिकार दिलाने के लिए सबसे पहले सत्यग्रह किया था और वायकॉम मन्दिर के चारों तरफ़ के रास्ते पर चलने का अधिकार दलितों को दिलवाया।

हिंदी समाचार पत्र लेखन इस महान व्यक्तित्व की सदा ऋणी रहेगी।एक समय था जब हिंदी पत्रकारिता में सभी चोटी के समाचार पत्रों, पत्रिकाओं के पहले संस्करण के सम्पादक उस गुरुकुल विद्यालय के विद्यार्थी होते थे जिसको स्वामी श्रदानन्द जी ने1902 में मात्र अपने दो बेटों के साथ आरम्भ किया था और आज वोही हरिद्वार का गुरुकुल कांगड़ी का विश्विद्यालय है।कितना अच्छा हो यदि इसका नाम बदल कर “स्वामी श्रदानन्द गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय”रख दिया जाये।इसी गुरुकुल ने “मि.गांधी”को “महात्मा गांधी” बनाया।जब पहली बार गांधी जी गुरुकुल आये तो उन्हें दिये गये मानपत्र में पहली बार गांधी जी को “महात्मा” शब्द से सम्भोधित किया गया और बाद में वो महात्मा बन गए।गांधी जी के शब्दानुसार, “स्वामी श्रदानन्द बाते करने वाले नही,अपितु कर्म करने वाले थे।”

एक पत्रकार के के रूप मे उनकी निडरता का उदाहरण इससे बड़ कर क्या हो सकती है कि बाल गंगाधर तिलक जी पर चल रहे देशद्रोह के मुकदमे पर उन्होंने लिखा कि ब्रिटिश अदालत ने यद्यपि उन्हें दोषी मान कर उन्हें सजा दी हो,पर भारतवासियों की दिल की अदालत में वो निर्दोष है।वो जानते थे कि वो ऐसा लिख कर कोर्ट की मानहानि कर रहे हैं, परन्तु स्वामी जी ऐसे ही थे।शायद इसी लिये गांधी उन्हें”बहादुरी की मूर्ति”(Embodyment of Bravery) कहते थे।उन्होंने ‘सदधर्म प्रचारक,श्रद्धा ओर लिबरेटर सहित अनेक पत्र ,पत्रिकाओं की स्थापना और सम्पादन किया।

नारी शिक्षा

जालन्धर में रहते हुए जब उनकी बेटी जोकि मिशन स्कूल में पढ़ती थी ने एक कविता सुनाई

“ईसा ईसा ईसा बोल,

तेरा क्या लगेगा मोल।

ईसा मेरा राम रमईया,

ईसा मेरा कृष्ण कन्हैया।”

उन्होंने उसी समय अपनी बेटी का मिशन स्कूल जाना बंद करवा दिया और अपने साले श्री देवराज के साथ मिलकर एक कन्या पाठशाला खोली जो कि आज कन्या महाविद्यालय जालंधर के नाम से शिक्षा जगत का चमकता सितारा बन चुका है।बर्तानिया के एक पहले प्रधानमंत्री रेमसे  डॉनल्ड जब गुरुकुल आये तो वापस वतन लौट कर अपने लेखों में लिखा ,उसका भाव यह था कि भारत में जब दूसरे नेता मैकाले की शिक्षा नीति का मात्र मौखिक रूप से विरोध कर रहे थे, वही स्वामी श्रदानन्द ने गुरुकुल कांगड़ी आरम्भ कर उसे करार जवाब दे रहे थे।

उनका मानना था कि अनाथ हुए हिन्दू बच्चों को इसाई और मुस्लिम अनाथालय बिना सोचे-विचारे गोद लेते हैं, यह एक दूरदर्शी पहल है। यही बच्चे आगे चलकर मजहबी प्रचारक होते हैं और धर्मांतरण करते हैं। भारतीय संस्कृति बचानी है, तो हिन्दुओं को मंदिरों की बजाय अनाथालय और गुरुकुल खोलने चाहिए।

उन्होंने अपने दोनों पुत्रों का विवाह बाल विधवाओ से करवा कर विधवा विवाह को अपना सार्थक समर्थन प्रदान किया।

लोक अदालते

आज के अनेक लोगों के मनपसन्द राजनीतिक सिद्धांत, जिन्हें दूसरे नेताओं की देन समझा जाता है, वास्तव में वो स्वामी जी की देन हैं।जैसे असहयोग आंदोलन, कृषि लगान न देना, लोक अदालत, सत्याग्रह इत्यादि।एक समय स्वामी जी ने स्वयं अनुभव किया कि एक वकील होने के नाते सरकारी अदालत में जाकर अपितु ब्रिटिश सरकार की सहायता ही कर रहे हैं।इसलिए उन्होंने वकालत छोड़ दी।इतिहास साक्षी है कि दिल्ही में स्वामी जी ने हकीम अजमल खाँ के साथ मिलकर लोक अदालत लगाते थे और बड़ी सूझबूझ से आपसी विवादों का निपटारा किया जाता था।अपितु ऐसे निर्णयों से आपसी दुश्मनी भी खत्म हो जाती थी।

         चांदनी चौक में टॉउन हाल के बाहर लगी स्वामी जी की आदम कद प्रतिमा इस बात की साक्षी है कि स्वामी जी का भारतीय राजनीति में क्या स्थान था और उनकी निडरता कितनी महान थीं।यह वही ऐतिहासिक स्थल है जहां स्वामी जी ने रौलट ऐक्ट के विरोध में सत्याग्रह और प्रदर्शन करते हुए  चालीस हजार की भीड़ का नेतृत्व करते हुए जब इस स्थान पर आये तो उन्हें रोक दिया गया और ब्रिटिश सिपाहियों ने अपनी राइफलें उनके सीने पर तान कर कहा, की एक भी कदम आगे बढ़ाने पर गोली सीने के पार कर दी जायेगी।इसपर स्वामी जी ने अपने सीने से चादर हटा कर छाती तान कर कहा,”सामने खड़ा हूँ, चला गोली।”  और सामने खड़ा गोरखा सैनिक राइफल समेत थर थर काँपने लग पड़ा था।

धार्मिक और साम्प्रदायिक एकता की सबसे बड़ी मिसाल थे स्वामी श्रदानन्द।इतिहास में दूसरी ऐसी कोई उदाहरण नही मिलती जिस में किसी आर्य सन्यासी ने जामा मस्जिद में भाषण दिया हो अथवा अकाल तख्त अमृतसर से प्रवचन किया हो।स्वामी जी की प्रथम गिरफ्तारी भी सिखों के गुरु का बाग के मोर्चे के सिलसिले में सिखों के पक्ष में भाषण देने के बाद हुई थी।वो एक अनोखे इंसान थे और वैसे ही अनोखे उनके कार्य भी थे।

सन 1919 में सारे पंजाब में मार्शल ला लागू था।कांग्रेस का वार्षिक अदिवेशन जोकि अमृतसर में होना था रदद् कर इलाहाबाद में करने का प्रस्ताव कांग्रस कारज कारनी सभा में पास हो गया था,लेकिन पंजाब की जनता और विशेष रूप से भी उन्होंने जिनके परिवारजन और रिश्तेदार जलियांवाला बाग हत्याकांड में मारे गए थे मांग कर रहे थे कि अधिवेशन अमृतसर में ही होना चाहिये।किन्तु उत्तरदायित्व कौन ले? उस समय तो पंजाब में कांग्रेस का नाम लेते हुए भी लोग डरते थे।परन्तु स्वामी श्रदानन्द जी ने एक बार पुनः आगे बढ़ कर उत्तरदायित्व अपने कंधों पर लिया और बड़ी शान से कांग्रेस अदिवेशन सफलतापूर्वक संपन्न करवाया।उस अधिवेसन के वो  स्वागत अध्यक्ष थे और अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने कहा था कि भाइयों और बहनों मैं आपके आगे यह अपील करता हूँ कि इस पवित्र जातिय मन्दिर में बैठे हुए सभी अपने ह्रदयों को मातृभूमि के प्रेम जल से शुद्ध करके प्रण करें कि 6करोड़ पचास लाख दलित नही,अछूत नहीं अपितु हमारे अपने भाई बहन हैं।उनके बेटे और बेटियां हमारी पाठशाला में पढ़ेगें।वो सभी नर नारी हमारी सभायो में समलित होंगे और हमारी आजादी की लड़ाई लड़गें।

पंडित मोती लाल नेहरू उस अधिवेशन के अध्यक्ष थे।

दलितों के हित में बड़े बड़े कांग्रेसी नेताओं की दोहरी नीति और उपेक्षा के कारण उन्होंने दलितों के लिए बनी समिति के उप प्रधान के पद से यह कहते हुए त्यागपत्र दे दिया कि दलितों का उद्धार किये बिना और उन्हें साथ लिए बिना कांग्रेस आजादी की लड़ाई में कुछ विशेष नही कर सकती।ऐसे थे स्वामी श्रदानन्द जी।

1923 काकीनाड़ा का काँग्रेस अधिवेशन भारत के इतिहास का यह पन्ना इतिहास की किसी किताब में नही मिलता।स्वयं नेहरू ने अपनी आत्मकथा में इसका जिक्र करना जरुरी नहीं समझा।सभी बड़े बड़े कांगेसी नेताओं की उपस्थित में अपने अध्यक्षीय भाषण के तौर पर मौलाना मोहमद अली ने कहा कि इस देश के अछुतो की समस्या का एकमात्र समाधान यही है कि आधो को मुसलमान बना लिया जाये और आधो को आर्य समाजी हिन्दू।

किसी भी नेता ने इसका विरोध नही किया, परन्तु एक बार पुनह स्वामी श्रदानन्द जी ने ही विरोध करते हुए कहा कि मौलाना साहब! हम मानते हैं कि हमने कुछ गलतियां की हैं, किन्तु हमारे दलित भाई कोई मिठाई का टुकड़ा नही है कि आधा आप खा ले और आधा हम।जब तक मैं जीवित हूं कोई ऐसा सपना भी नहीं देख सकता।

एक समय था जब हिंदुयों के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों का धर्म परिवर्तन अपने शिखरपर था।मुस्लिम लीग और ईसाई मिशनरी लगातार हिन्दू समाज को धर्म परिवर्तन का शिकार बना रहे थे।मिशनरी धन के लोभ से और मुस्लिम “दानी-ऐ-इस्लाम”जैसी किताबे लाख कर सोची समझी साजिश के तहत इस काम में लगे हुए थे।इस धर्म परिवर्तन को रोकने के लिए स्वामी श्रदानन्द जी ने “शुद्धि आंदोलन ” चलाया।पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने एक लेख में लिखा कि यह शुद्धि आंदोलन वास्तव में उन हिंदुयों के लिए था जोकि बहुत समय पहले अपना धर्म छोड़ गये थे,परन्तु जिन्होंने अपने हिन्दू रीति रिवाज नही छोड़े थे और मुसलमानों में भी उनके साथ बराबरी का व्यवहार नही किया था।स्वामी श्रदानन्द जी के प्रभाव से बॉम्बई की  मुसलमान औरत असगरी बेगम जा शुद्धि संस्कार करवा उन्हें हिन्दू बनाया और शांतिदेवी नया दिया गया।प्रशिद्ध सिनेमा कलाकार तब्बसुम उन्ही की बेटी हैं।पंजाब की पटियाला रियासत के दीवान जर्मनी दास ने तबके मुसलमानों के खलीफा कहे जाने वाले तुर्की के सुल्तान के वजीर की बेटी लेलम (जिसे लैला भी कहा जाता था)से आर्य समाजिक विधि से विवाह किया,जिसने तब की भारतीय राजनीति में भूचाल ला डाला था।किसी भी मुसलमान को जबरन हिन्दू नही बनाया जाता था।किंतु फिर भी गाँधी और कई मुस्लिम एव कांग्रेसी नेता उनसे नाराज हो गए, जिसके चलते उनकी कायराना हत्या हुई।

स्वामी जी की महानता का वर्णन करना बहुत कठिन है।उनकी महानता पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है।23 दिसम्बर 1926 उस महामानव को एक तब्लीगी जमात के मुसलमान गोली मारी, उस समय स्वामी जी बीमार थे और बिस्तर पर लेटे हुए थे।हत्यारा अब्दुल रशीद धार्मिक चर्चा के बहाने आया था।उस समय उनका सेवक धर्म सिंह वही उपस्थित था।कातिल ने बहाने से पीने के लिए पानी मांगा और स्वामी जी ने धर्म सिंह को पानी लाने के लिए कहा। अब्दुल रशीद पानी पीने के लिए कक्ष से बाहर आया और पानी पीने के बाद वापस कमरे की तरफ भागा ,और “धांय धांय धांय धांय चार गोलियां स्वामी जी के सीने पर मार दी।

वोही महापुरुष जिसने उसी दिन सुबह गोवाहटी कांग्रेस के लिए एक तार भिजवा कर कहा था कि इस देश का भविष्य हिन्दू -मुसलमान एकता पर निर्भर करता है,एक कायर मुसलमान की नफरत का शिकार हो गया।

दुर्भाग्य से मुसलमानों के एक बड़े वर्ग ने हत्यारे को “गाजी”की उपाधि दी और फांसी से बचाने के लिये पूरा जोर लगाया।

उनके समय के प्रमुख नेता लाला लाजपतराय जी ने कहा था कि श्रदानन्द मुझे तेरी जिंदगी से भी ‘रश्क’था और तेरी मौत पर भी।

जवाहरलाल नेहरू ने इस घटना का वर्णन करते हुए अपनी आत्मकथा में लिखा कि उस वर्ष स्वामी श्रदानन्द की मृत्यु से एक तूफान मच गया।वही श्रदानन्द जिन्होंने जामा मस्जिद से हिंदुयों और मुसलमानों को आजादी और एकता का पाठ पढ़ाया था और हिन्दू मुसलमानो की सांझी भीड़ ने उनके नाम के नारे लगाते हुए उनका स्वागत किया था ,एक कायर मुसलमान ने उनकी हत्या कर दी जबकि वो प्लंग पर बीमारी से लेटे हुए थे।उस महान शख्सियत, ऊंचा कद,70 वर्ष की आयु में भी सीधी कमर और चेहरे पर चमक।उस महान सख्सियत को मैं कैसे भूल सकता हूँ।वो बार बार मेरी आँखों के सामने आ जाती है।

परन्तु दुर्भाग्य से आजाद भारत के इतिहासकारो ने उन्हें भुला दिया है।आजाद भारत की सरकारों ने भी उन्हें भुला दिया।कितना जरूरी है श्रदानन्द आज एक बार फिर।एक आदर्श व्यक्तित्व हरेक पीढ़ी के लिए।

राजीव कुमार

9814986608

About VOICE OF PUNJAB

For centuries together, Punjab has borne the brunt of foreign invasions carried out by the semi-civilized hordes who were driven by the fanatical barbaric ideology of Islam. Again, at the time of the Partition, Punjab suffered the most.Thousands of the innocent people were massacred, women were abducted and forced to convert to Islam. There were frequent incidents of arson and a half of the city of Amritsar was burnt down. Even after the Partition, Punjab bore the brunt of two full-scale wars with Pakistan. The present Islamic terrorism also is a continuation of that policy and ideology. But the pity is that most of the Indians are still ignorant of or indifferent to the dangers posed by this fanatical seventh-century tribal ideology which refuses to admit of any change. Our aim is to make the people of India aware of the nature and dangers of this ideology which has done incalculable harm not only to India, but also to the world as a whole. Then there is the problem of distortion of the history of Punjab by certain vested interests with ulterior political motives. We must set the record straight in the light of the facts of the past. Our aim is to sift the facts from the fiction which some people have tried and are trying to turn history into. Last but not least, we do not treat Punjab in isolation from other parts of India, as some groups do in the north-east and even in the south of India. Punjab is an integral part of India. We consider our own even that part of Punjab which now forms part of Pakistan. We cannot forget our holy places there like Katasraj the antiquity of which goes back to Mahabharat, Takshshila (now Taxla) where Panini, the great grammarian once lived and taught, the Sikh gurudwaras, and of course, Lahore which was the capital of the kingdom of Maharaja Ranjit Singh. Thus the voice of Punjab is the voice of India and not the voice of a small group residing in a particular place.
This entry was posted in Uncategorized. Bookmark the permalink.

Leave a comment